पहला कदम

जब भी मै किसी घटना से प्रभावित होता हूँ तो सोचता हूं कि मैं कुछ कहु या लिखु, इस बात पर मै भी अपनी राय दू, मन में मैं कुछ लिख भी लेता हूँ लेकिन उसके आगे नहीं हो पाता कुछ,  फिर वो बात कहीं खो जाती है।

जब मै किसी व्यक्ति विशेष के बारे में कुछ जानकारी इकट्ठी करता हूं या पढता हूँ तब मैं सोचता हूँ कि इस जानकारी को मैं शेयर करू, पर ऐसा करने के पहले ही वो जानकारी दिमाग से गायब हो चुकी होती है।

किसी कला से संबंधित जैसे कुकिंग,  गार्डनिंग या किसी अन्य विषय पर कुछ आइडियाज मन में आते हैं जो शेयर किये जाने चाहिए पर वो हो नहीं पाता।

रोजमर्रा जीवन में कई तरह की समस्याओ का हम सामना करते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं,  कभी कभी लगता है कि जिस तरीके से मैने मैनेज किया वो सभी लोगों से शेयर करना चाहिए।

दिल की बात दिल में ही न रह जाये, इसलिए अच्छा है कि उसे लोगों के साथ शेयर कर लिया जाए। बहुत सी चीजें हैं जिनके बारे में हम अक्सर सोचते हैं पर पूरी जानकारी नहीं है , ऐसी कोई बात अगर मै किसी तक पहुंचा सका तो ये सफलता होगी मेरी।।।

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महा पलायन 2020

मुझे आज भी याद है वो दिन जब बाबा ने कहा कि हमें बंगलोर से कोटा साइकल से निकलना होगा और कोई चारा नहीं है , गाँव मे ज़िंदा तो रहेंगे कम से कम , जब समय सही होगा तब देखा जाएगा फिरसे कि क्या करना है ।

मेरा नाम रोशनी भगत है मेरे बना का नाम राम भगत है ,मै बाबा और मेरी 80 साल कि दादी सब बंगलोर मे रहते थे , हमारी माँ नहीं थी वो गुजर चुकी थी , मेरे बाबा वही पर एक फक्टरी मे काम करते थे और पास के एक झुग्गी मे रहते थे , हमारी झुग्गी मे ज्यादा समान नहीं था ,एक चूल्हा एक बक्सा और नीचे बिछे दो गद्दे के अलावा बड़ी प्रॉपर्टी मे एक साइकल थी बाबा कि पुरानी सी । मैं पास के ही स्कूल मे जाती थी पढ़ने उस समय मई दूसरी कक्षा मे थी , मेरी 2-3 सहेलिया थी जिनमे सना मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी , वो मेरे झुग्गी के पास ही रहती थी ।

फिर एक दिन अचानक स्कूल कि छुट्टी कर दी गई बोला गया कि अब स्कूल बंद ही रहेगा , जब बताया जाएगा तब वापस स्कूल आना होगा क्योंकि कोरोंना वाइरस फ़ेल रहा है सबको घर मे रहना है , हम बच्चे तब तो खुश हो गए थे ,क्यूंकी तब हमे पता नहीं था कि हमारे पर क्या दुखों का पहाड़ गिरने वाला है ।

घर आए तो पता चला कि बाबा कि फक्टरी भी बंद हो रही है , कुछ पैसे दे दिये गए थे उन्हे और आने को माना कर दिया गया था ।शुरू मे तो कुछ दिन चल गया लेकिन जब पैसे खतम हो गए तब दिक्कतें शुरू हो गई । लोगों ने बोला कि सरकार खाना देगी पर सरकार के लिए भी ऐसा कर पाना शायद संभव नहीं रहा होगा ।हम किसी दिन खाना पाते किसी दिन नहीं पाते थे ,हम सब्जी तो खा लेते थे लेकिन कुछ रोटिया अगले दिन के लिए बचा लिया करते थे ताकि अगर अगले दिन भोजन न मिले तो दिन का कुछ इंतजाम हो जाए । फिर एक दिन ऐसा भी आया जब बिलकुल खाना नहीं मिला , फिर दूसरे दिन भी नहीं मिला , बाबा बाहर जाते और खाली हाथ आते , मै पूछती कि सरकार ने तो कहा था कि देगी खाना , बाबा बोले सरकार सबको नहीं दे सकती खाना , जहा खाना बाटा जाता है वह बहुत भीड़ थी बेटा मै नहीं ल सका , मुझे माफ कर दो । उसी के बाद बाबा ने तय कर लिया कि वापस जाना है घर ।

पर बाबा ने पता किया कि कोई भी साधन नहीं चल रहे थे कही भी जाने के लिए ,पुलिस लाठी डंडे मार रही थी जो बाहर फालतू दिख जा रहा था , फिर कुछ दिन बाद थोड़ी ढील दी गई तो झुग्गी के कुछ लोग पैदल जाने लगे अपने अपने घर को कुछ साइकल से जाने लगे , तब बाबा ने मन बनाया कि वो भी हम दोनों के साथ साइकल से निकलेंगे । अगले दिन बाबा ने कहा कि ये साइकल पुरानी है नई देखता हूँ किसी की, फिर उन्होने घर का सारा समान और पुरानी साइकल को बेच कर एक नई साइकल किसी कि खरीद ली और फिर हम निकाल पड़े बंगलोर से कोटा जाने को , बाबा ने बाद मे बताया कि उन्हें बहुत दर लग रहा था कि वो ये सफर पूरा कर पाएंगे कि नहीं , बाबा को तो दूरी भी पता नहीं थी और न ही रास्ता मैंने उन्हे कई साल बाद बताया जब मैंने कही पढ़ा , उन्हे बस ये पता था कि कई दिन लगेंगे ।

हमारे पास 500 रूपय थे अगले कई दिन के सफर के लिए । साइकल पर पीछे कैरियर पर बाबा ने एक अच्छा सा कुशन बांध दिया था क्यूंकी उस पर दादी को बैठना था , वैसे दादी ने एक बार बाबा को यह प्रस्ताव दिया कि मुझे यही छोड़ दे मरने के लिए , मुझे कहा ले जा पाएगा पर वो नहीं माने , और मानते भी कैसे । साइकल पर सिर्फ एक खाली झोला और दो पानी के लिए बोतल रखा था और कुछ नहीं बाबा ने मुझे आगे बैठाया और साइकल पर पहला पैडल मारा और हम निकल लिए अपने सफर पर । रास्ते मे जहा जहा हमे कुछ खाने का समान बांटता देखते व्हा हम उसे रख लेते कुछ खा लेते । रात मे हम किसी स्टेशन या हॉस्पिटल के आसपास रुक जाते , रास्ते मे हमे और कई लोग भी दिख जाते जो अपने अपने घरों को जा रहे थे , कुछ ट्रकों पर लदकर , कुछ साइकल से और कुछ पैदल ही जा रहे थे ,कुछ तीन दिन बाद हम बेल्लारी पहुचे और वही पहली बार मुझे भगवान के दर्शन हुये , ये बात भी मैंने उस समय नहीं समझी बाद मे जब समझदार हुई और ये सुना और पढ़ा कि भगवान किसी भी रूप मे आ सकते है ।

हुआ यू कि बेल्लारी शहर को पीछे छोडते हुये हम करीब 20 किमी हाइवे पर जा रहे थे तेज़ गर्मी थी इसी बीच बाबा कि साइकल पंक्चर हो गई , हम सब नीचे उतरे और देखा कि पिछले टायर मे हवा नहीं है , बाबा ने बोला कि इसके बारे मे तो मैंने सोचा ही नहीं था । अब क्या करे अगर साइकल ऐसे ही घसीटते है तो वाल्व भी खराब हो जाएगा और यहा रुक भी नहीं सकते । बाबा को कुछ समझ नहीं आ रहा था ,मै उनको कभी साइकल देखती और एक अध बार दादी को । दादी ने एक बार फिर अपना प्रस्ताव दिया कि मुझे यही छोड़ दो और तुम दोनों निकला जाओ पैदल । मेरा समय हो गया पूरा । इसी बीच एक ट्रक जाता दिखाई दिया हमने हाथ दिखाया पर वो रुका नहीं । ऐसे ही एक घंटा बीत गया बाबा को यह चिंता साता रही थी कि अगर शाम होते अगले शहर या कस्बे तक नहीं पाहुचे तो बड़ी दिक्कत हो सकती है। फिर दूर एक मोटर साइकल तेज़ी से आती दिखी , इससे पहले कि हम उसे हाथ दिखाते उसकी मोटर साइकल धीमे होने लगी , फिर वो हमारे पास आकार रुक गई ….

 

 

(कृपया कमेंट करके बताइये कि क्या इसके आगे कि कहानी आप सुनना चाहेंगे)

अपने बीच का सेलिब्रिटी

आज सुबह ऐसी खबर आई की हिल गया मै, अभी तक अजीब सा लग रहा है । शायद वैसी फीलिंग आ रही जैसे कोई अपना रोज मिलने वाला भाई या दोस्त कहीं दूर चला गया है , अपना इरफान अब हमारे बीच नहीं रहा वो उसका इंतकाल हो गया है ये कह पाना भी कुछ खराब सा लग रहा है । 3-4 ट्वीट कर चुका हु पर उससे मन हल्का नहीं हो रहा ।फिल्म मदारी का क्लाइमैक्स सीन यू ट्यूब पर देखने लगा तो रोना आ गया जिसमे वो कहता है हॉस्पिटल वालों ने उसके बच्चे के मृत शरीर को थैले मे दिया वो सोच नहीं प रहा था की इसे जलाऊ या दफनाऊ। वो भी बंद कर दिया ।

हम सब सबसे ज्यादा चर्चा खानों की करते हैं जाहिर है उसमे इरफान का नाम नहीं आता था पर आज मैंने लिखा अपने ट्वीट से कि ” हम भले बात khans कि करते हो पर आज मुझे यह कहने मे कोई शक नहीं कि इरफान खान खानों के खान है .. वह ग्रेट खान हैं” । वो अपना सा लगता है सिम्पल कभी उसको बिजनेस टाइकून के रोल मे नहीं देखा जैसा बाकी खान करते है न फालतू का लवर बॉय वाले सींस ।कल जब ये खबर आई कि उनकी तबीयत खराब है और उनको अस्पताल मे भर्ती कराया गया है तो एक पल को भी न लगा कि आज यह खबर आएगी । उनकी अंतिम फिल्म इंगलिश मीडियम आई है कुछ दिन पहले देखनी शुरू किया था पर पूरी नहीं कर पाया , कैसी विडम्बना रहेगी की आधी मोवी उनके जीवित रहते देखा था बाकी आधा उनके जाने के बाद । सबसे ज्यादा अफसोस इस बात का है की अब उनकी अदाकारी देखने को नहीं मिलेगा ।

इरफान की अदाकारी की सबसे खास बात यह है की वह एफर्ट्लेस अदाकारी करते है ,बिलकुल नेचुरल; आपको लगता है की आप भी वही कही फ्रेम मे हो , ये नहीं लगता की हाल मे सीट पर बैठे हो । उनकी अदाकारी की गहराई तो वैसे अभी समझ मे आई है जब हम बड़े हो गए। बाकी उनके देख तो हम सालो से रहे है आपको भी याद होगा एक सीरियल आता था दूरदर्शन पर भारत एक खीज उसमे उन्होने कई रोल किए, फिर चंद्रकांता मे भी थे एक अइयार बद्रीनाथ को रोल उन्होने किया था ।पहले इनके आंखो के नीचे ज्यादा फूला हुआ सा रहता था फिर बाद मे तो वह कम हो गया था ।

उनका अंदाज़ ही ऐसा था की लोगों को मज़ा आता था ,उनके संवाद बोलने मे , देखने के अंदाज़ मे , मुस्कुराने मे , खड़े होने मे सबमे अलग मज़ा आता था देखने मे । उनकी हाल के वर्षों मे आई फिल्में जैसे पान सिंह तोमर , पिकू , साहब बीवी और गंगस्टेर (अगर नाम सही है जिसमे महि गिल भी थी),मदारी, एक अभी डेटिंग पर आई थी फिल्म नाम नहीं याद आ रहा , हिन्दी मीडियम , कारवां देखि मोबाइल पर बहुत अच्छी , तलवार देख लीजिये , ऐश्वर्या के साथ आई थी एक फिल्म अभी,लाइफ ऑफ पाई । सब मज़ेदार ।

मुझे पता है ये समय भी निकाल जाएगा , सब धीरे धीरे नॉर्मल हो जाएगा पर जब भी इरफान की कोई फिल्म देखेंगे तो सभी तड़प कर रह जाएंगे की यार ये चला गया । ज़हीर सी बात है अब इरफान की तरफ से इस जनम मे कुछ नया नहीं मिलेगा , वैसे आप चाहे तो उनकी फिल्मे दोबारा एकेले मे देख सकते है , सबमे मे कुछ न कुछ सीखने को जरूर मिलता है , अपनी लाइफ स्टाइल के बारे मे , लाइफ की प्रॉब्लेम्स के बारे मे  सीख सकते हैं आप । ज्यादा नहीं तो कूल रहना तो सीख ही सकते हैं ।

irf

अलविदा भाई फिर मिलेंगे,

क्योंकि यहा तो कोई है नहीं जो आपके द्वारा किए गए रिक्त स्थान की पूर्ति कर सके ॥

ईश्वर आपकी पत्नी और पुत्र को ताकत और हौसला दे , शायद आपका बेटा ही अगला इरफान बने ।

 

 

 

 

 

दिमाग से पैदल

वर्तमान समय मे मै ये देख रहा हु कि पूरे भारतीय समाज का ध्रुवीकरण होता जा रहा है , कम से कम सोशल मीडिया पर तो ऐसा है ही , मै पूरे समाज को दो किनारों पर खड़ा हुआ पा रहा हु ; ज़ाहिर सी बात है हमेशा कि तरह धार्मिक आधार पर ही बंटे हुये हैं । जब भी कोई घटना होती है तो शुरू मे किसी से कोई प्रतिक्रिया नहीं आती है क्योंकि उसे तब तक ये मालूम नहीं होता है कि इस पर क्या प्रतिक्रिया देनी है , उसे तब तक ये घटना समान्य लगती है जब तक किसी राजनीतिक रूप से जुड़े व्यक्ति का ट्वीट या कोई पोस्ट नहीं आ जाता; एक बार समझ आने पर की इस पर क्या स्टैंड लेना है वो आक्रामक हो जाते हैं जैसे की वो सैनिक हैं और सेनापति के ‘आक्रमण’ बोलने का इंतज़ार कर रहे थे । और फिर वो आग उगलने लगते हैं दूसरा पक्ष भी प्रतिक्रिया स्वरूप हमले शुरू कर देता जिसका  अंत मे कही भी कोई सार्थक अंत नहीं मिलता फिर धीरे-धीरे आग ठंडी पड़ जाती है पर बुझती नहीं है ; वो अगली हवा का इंतज़ार करती है ।

मै एक बात समझ नहीं पाता हु कि लोगों ने अपना दिमाग प्रयोग करना बंद कर दिया है क्या, या फिर उन्हे ये पता ही नहीं कि दिमाग का प्रयोग भी करना होता है ;ये तो ऐसे ही हो गया जैसे आप बिना मंजिल कि बस मे बैठ गए है और ड्राईवर के भरोसे हैं कि जहा वो ले जाएगा वह चले जाएंगे , ड्राईवर खाई मे भी गिराने जा रहा होगा तो यही बोलेंगे कि   ” हा भाई सही जा रहा है , स्पीड थोड़ी बढ़ा लेना खाई मे गिरने के पहले” । जबकि वास्तव मे ऐसा नहीं है आप बस मे जब वाकई मे जाते है तो उसको गरियाते जाते है कि ” कि भैया क्या कर रहे हो ,पी राखी है क्या “। मेरे हिसाब से अंतर है कि जब आप अपने बारे मे सोचते हो तो अपनी चिंता करते हो अपने परिवार कि चिंता करते हो ; और आपकी हद भी वही तक आती है । जैसे ही आप सोशल मीडिया पर आते है आप देश के बारे मे बात तो करते हैं पर चूंकि आप कि हद अपने परिवार तक ही है इसलिए आप उसके आगे सोच नहीं पते , आप देश कि चिंता नहीं करते देश मे आग भी लग जाए तो फरक नहीं पड़ता , आप जब वहाँ आग लगा रहे होते है तो दिमाग मे यही रहता है कि इससे मेरे घर मे आग नहीं लगेगी । हम सब को ये समझना होगा कि देश हम सबसे बना है , हम सब कही न कही जुड़े हुये है जैसे मानव शरीर के सभी कोशिकाए और ऊतक । मानव शरीर के सभी कोशिकाए और ऊतक मिलकर काम करते हैं अगर पैर कि कोई कोशिका खराब होगी तो उसका असर सर कि कोशिका पर भी पड़ेगा ।

हम जब भी बात करते हैं तो हमेशा एक तरफ खड़े होकर बात करते हैं कभी दूसरी तरफ जाकर उस बात को समझने का प्रयास नहीं करते हैं या सच कहें तो करना ही नहीं चाहते है । अँग्रेजी के 6 अक्षर को एक तरफ से देखने पर एक पक्ष  उसे 6 पढ़ेगा जबकि उसी को दूसरा पक्ष दूसरी तरफ खड़ा होकर उसे 9 कहेगा ; आपको हर बात समझने के लिए अपने दिमाग का प्रयोग करना ही पड़ेगा  ,बाकी आग तो लगी ही है; और आपको ये अहसास है या नहीं मुझे नहीं पता पर ये सत्य है कि आग आपको नहीं पहचनती वो किसी को नहीं पहचानती, वह सबको एक समान दृष्टि से देखते हुये बिना भेदभाव करते हुये सब खाक करते हुये चली जाती है , भेदभाव करना मनुष्यों का गुण है न कि प्रकृति का । वो भूकंप भी लाती है तो सबको जमींजद कर देती है और तूफान मे सबको उड़ा देती है बिना कोई लिस्ट बनाए ।

अगर आप पृथ्वीराज चौहान कि तारीफ मे कसीदे पढ़ते हैं और जयचंद का जिक्र आने पर चुप्पी साध लेते हैं तो आप ढोंगी है Hypocrite हैं , क्योंकि आप कहे चाहे न कहे इसी राजपूत शासक जय चंद कि वजह से भारत मे इस्लामिक प्रभाव ने कदम जमाये थे , अब आप मुस्लिम शासकों कि बात करते नहीं थकते जयचंद को गालियां नहीं देते । इसी तरह जब आप अब्दुल कलाम कि बात करते हैं ,जिन्होने रॉकेट और मिसाइल के क्षेत्र मे भारत को यूरोप और अमेरिका के बराबर ला कर खड़ा कर दिया , तो हमे अफजल गुरु की भी बात करनी पड़ेगी , अगर ऐसा नहीं करते तो आप भी ढोंगी हैं ; समाज मे हर तरह के लोग हैं आप नेताओं के कहने पर क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं कर सकते आप को अपनी सोच अपनी,अपनी विचारधारा बनानी ही होगी । अगर आप ऐसा नहीं कर पाते तो आप दोनों ही तरह के लोग देश और समाज के दुश्मन है , भले ही आपने अपने सोशल मीडिया अकाउंट के बायो मे कुछ भी लिख रखा हो, कोई फरक नहीं पड़ता।

जैसा किसी ने कहा है-

अपने शब्दों को ऊंचा करो, न कि आवाज़ को ; फूल बारिश से उगते हैं न कि तूफानो से ।

सतेंद्र नाथ दुबे

आज crime petrol पर एक ऐसी स्टोरी कवर की गयी जिसे देखकर अपने को रोक नहीं पाया, इसलिए नहीं कि कोई इसे पढे और मेरी तारीफ करें पर इसलिये कि मैं इसको समय समय पर पढता रहूँ ये कहानी कही खो न जाये।

ये कहानी है सत्येन्द्र नाथ दूबे की एक IES अफसर थे, इनकी हत्या 2003 में गया, बिहार में की गई जब इनकी उम्र मात्र 30 वर्ष थी. हत्या के वक्त आप NHAI मे व्याप्त भ्रष्टाचार पर कार्यवाही कर रहे थे।हत्या की जांच CBI स्तर तक गई किन्तु वास्तविक अपराधी कभी पकड़े नहीं गए.

इस एपिसोड को देखकर मेरे मन मे एक विचार आया कि अगर आज वो जीवित होते तो 46 वर्ष के होते और ऐसी तीन परिस्थितियां होती जिसमे वो जी रहे होते –

1- वो एक बहूत ही भ्रष्ट IES अफसर होते, ऐसी स्थिति मे वो मज़े की ज़िन्दगी जी रहे होते, सभी ठेकों मे अपना कमीशन ले रहे होते, कई एकड़ के कई फ़ार्म हाउस होते.. आलीशान बंगले लक्ज़री गाडि़यों का जमवाड़ा होता. बड़े बड़े अधिकारियों, मंत्रियों व ठेकेदारों से घनिष्ठता होती और शायद रिश्तेदारी भी होती. घर वाले भी खुश रहते आगे पीछे चक्कर लगाते.कुल मिलाकर सबसे राजसी जीवन व्यतीत करते दुबे जी.

2-वे एक बीच का रास्ता अपनाते, इसमे वो अपनी एक सीमा मे रहकर कमीशन खाते, जादा गलत काम होता तो आँखे मूंद लेते पर कहते कुछ नहीं, या दिखाने के लिए कुछ कागजी कार्यवाही कर लेते.. ये रास्ता उन्हे बिना जीवन की तमाम सुख सुविधाओं के साथ साथ तनाव मुक्त जीवन भी प्रदान करवा देता.. पर उन्होने इसे भी नही अपनाया.

3-ये तीसरा रास्ता वो था जिसे उन्होने खुद चुना और जिससे शायद उनकी हत्या भी हुई. उन्होने अपने दिल की बात सुनी वही किया जो वो करना चाहते थे. एक बात मै और कहना चाहूंगा कि अच्छा काम करने की इच्छा रखने वाले लोग बहुत सारे हैं पर जान जाने का खतरा होने के बावजूद भी सही बात पर डटे रहने का जुनून पगालपन कुछ ही विरले लोगों में रहता है.

वो चाहते तो IES की नौकरी नहीं करते किसी प्राइवेट नौकरी कर रहे होते और बहुत ऊंचे ओहदे पर होते. पर उन्होने IES की नौकरी की ताकि देश के इंफ्रास्ट्रक्चर मे वो अपना योगदान दे सके. जब उनका चयन NHAI के स्वर्णिम चतुर्भुज प्रोजेक्ट के लिए हुआ तो उनका खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उनका सोचना था कि ये प्रोजेक्ट हमारे देश व देश के पिछले इलाकों की दशा व चेहरा बदल जाएगा.. पर जब उनको इस बात का पता चला कि सड़को मे खराब गुणवत्ता का कार्य हो रहा है तो उन्होने इस मामले को नीचे से लेकर ऊपर तक हर जगह उठाई पर उनकी बात ना चल सकी.. पर वो भी जुनूनी थे वो अपनी बात से पीछे हटने वाले नही थे शायद इसलिए उन्हे ही रास्ते से हटा दिया गया..

आज भी जब कभी स्वर्णिम चतुर्भुज पर चलता हू तो सोचता हू की अपने देश व कर्तव्य पर दृढ़ता से चलने वाले ऐसे जुनूनी और सच्चे लोगों को लोग क्यु भूल जाते हैं और उन अधिकारियों की तरफ देखते हैं जो अलीशान मकानो मे रहते हैं बड़ी गाड़ियों से चलते हैं.नौकरी लगते ही लोग पोस्टिंग और कुर्सी के बारे मे ही सोचते हैं.

वेसे बात सही है कि अलग राह पर चलना सबके बस की बात नही है. वो लोग अलग मिट्टी के बने होते हैं. उम्मीद करते हैं कि हर घर मे ऐसी ही मिट्टी के बच्चे पैदा हो जो देश को चमकाने का प्रयास करे. मैंने ऊपर एक स्थान पर लिखा था कि वो तीन परिस्थितियां जब वो आज भी जीवित रहते, मेरे मन मे सत्येंद्र दुबेय नाम का सूरज हमेशा चमकता रहेगा अर्थात जीवित रहेंगे..

रेड फोर्ट

दिल्ली मुगल वंश के अंतिम 200 वर्षो मे लाल किला ही मुगलों का मुख्य अवास रहा.. उसके बाद अंग्रेजी हुकूमत के पास ये भारत की अज़ादी के समय तक रहा. आज भी इसको उसी रूप मे देखा जाता है हर वर्ष 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री यही लाल किला के लाहोरी गेट से ध्वजा, अरोहण करते हैं तथा राष्ट्र को संबोधित करते हैं.

पिछले दिनो लाल किला घूमने का प्लान बन गया.लाल किला मेट्रो स्टेशन बिल्कुल सटे ही है. पैदल ही हम टिकट काउंटर तक गए. समान्य दिन होने के बावजूद लाइन मे मुझे 15 मिनट लग गए. पीक सीजन या जादा छुट्टी वाले वीकेंड मे भीड़ जादा होती होगी. ऑनलाइन टिकट लेने का प्रयास किया जा सकता है. दो तरह के टिकट मिलते हैं, 50 रु मे सिर्फ समारकों को जबकि 80 रु मे समारकों के साथ ही म्यूज़ियम भी देख सकते हैं.

अंदर खाने पीने का सामान नही मिलता है,लाहोरी गेट से अंदर जाना होता है, अंदर जाने पर एक चौड़ी गलेरीनुमा बाज़ार है जहा पर हाथ से बने सामान मुर्तिया, शाल चूड़ी आदि मिलते है

 

इस बाज़ार के ऊपर जब आप देखेंगे तो बड़ी ही खूबसूरत छत् दिखाई पड़ती है..

इससे आगे बढ़ने पर दीवान ए आम यानी जहा सम्राट आम लोगो से मिलते थे..

अंदर के प्रांगण मे कई तरह के महल हैं पर ये सारे महल छोटे छोटे संरचना हैं बस.. अंदर मोती मस्जिद भी है..

सबसे पीछे की तरफ दीवाने खास है जहा सम्राट अपने मंत्रियों व अन्य संभ्रांत लोगो के साथ बैठते थे. इस संरचना की छत्त की कलाकारी देखने लायक है. कहते है इसमे सोने जड़े थे जिसे अंग्रेज़ों ने निकाल लिया.

लाल किले मे जल व्यवस्था अत्यधिक आकर्षक व मनमोहक रही होगी अभी तो सिर्फ संरचना ही रह गई है उस समय खूबसूरती के साथ साथ वातानुकूलन का भी कार्य इससे होता था..

पूरे किले के अंदर कोई विशाल या विहंगम इमारत या संरचना नही दिखती जैसा कि भारत के अन्य कई किलों मे दिखता है, एक बात मुझे समझ में नहीं आयी कि मुगल सम्राट इस किले के किस हिस्से मे रहते थे मुझे ऐसा लगता था कि लाल किले की बड़ी और बेहद मजबूत दीवारों के पीछे एक अलीशान संरचना होगी पर ऐसा ना था.. ये भी संभव हो सकता है कि वो हिस्सा किसी अलग तरफ हो जो मुझसे छूट गया हो.

वेसे शुरू में मिले बाज़ार वाले हिस्से मे भी अवास हो सकता है अगर आपमे से किसी को इस सम्बंध में कोई जानकारी हो तो मुझे जरूर बताए..

अंडमान चलों!!

  • ये खयाल आते ही कि हम किसी नई जगह जाने वाले हैं हमें रोमांचित कर देता है, जिन जगहों या जिन बातों के बारे में सिर्फ सुना है या पढा है उसको खुद महसूस करने का एहसास आपको नई ऊर्जा से भर देता है।जब मैने अंडमान द्वीप समूह जाने का सोचा तो मैं उत्साहित तो था पर कन्फ्यूज भी हो गया था कि क्या कैसे करना है, नेट पर काफी रिसर्च करने पर मैने अपना पूरा ट्रैवल प्लान कर लिया जो मेरे हिसाब से काफी सफल रहा।उस जगह में बीता हर पल हमें आज भी याद आता है और जीवन भर हमेशा साथ रहेंगी।

  • चलिये बात करते हैं कि हमने प्लान कैसे किया,क्या वहां देखा,, कहाँ कहाँ गये, क्या खाया क्या अच्छा लगा और क्या खराब और साथ ही यह भी बताते हैं कि क्या नहीं किया या नहीं कर पाये जो आप कर सकते हैं यहाँ पढकर।अब उन खास पहलुओं पर बात कर लेते हैं जिनका ध्यान प्लेनिंग करते समय करना सही रहता है।
  • यात्रा करने का सही मौसम-अगर पीक सीजन की बात करे तो 15 दिसंबर से 15 जनवरी तक का सीजन पीक सीजन रहता है पर इस अवधि में पैकेज के दाम भी ज्यादा वसूले जाते हैं, पीक सीजन से 15 दिन पहले जाना सबसे बेहतर रहेगा। इसके अतिरिक्त नवंबर से फरवरी तक का समय सही माना जाता है। बाकी 8 महीनों में वहाँ जाने की सोचना भी नहीं चाहिए क्योंकि उमस और गर्मी के कारण किसी की भी हालत खराब हो सकती है।
  • यात्रा की अवधि – अंडमान जैसी खूबसूरत जगह के लिए कितने भी दिन हो कम पड़ जायेंगे पर शायद जेब जवाब दे दे, इसलिए मेरे हिसाब से 5 दिन से कम का टूर का कोई फायदा नहीं होगा, 6-7 दिन का टूर आदर्श रहेगा। वैसे कितने भी कम दिन या ज्यादा दिन आप यहां रह लो वापसी के समय यही खयाल आता है कि काश यही रूक जाते।
  • बुकिंग कैसे करें –गूगल करने पर ये तो समझ आ गया कि अन्डमान जैसे टूरिस्ट प्लेस की पूरी प्लानिंग आप खुद से नहीं कर सकते, आपको एक ट्रेवल एजेंट / कंपनी की सहायता लेनी पड़ेगी।कारण मैं बताता हूँ, अंडमान में आपको कम से कम 5 नाइट्स का टूर बनाना होगा जिसमें आपको पोर्ट ब्लेयर, हैवलाक व नील द्वीप समूह पर स्टे करना होगा,यहा द्वीपों पर आना जाना फेरी से होता है जिनकी बुकिंग एडवांस में करना सही रहता है इसके साथ साथ वहां पर रहने की व्यवस्था व आना जाना इन सभी बातों को वहां का लोकल ट्रेवल एजेंट अच्छी तरह से संभाल लेते हैं, मैने experienceandaman.com पर सारी बुकिंग की, मेरी बात कंपनी की executive दिव्या से हुई जिनसे कई बार बात करने पर मैने 5 दिन का टूर पैकेज लिया ज्यादातर बातें ईमेल से होती थी अंडमान में नेटवर्क वीक रहता है इसलिये मोबाइल पर बात ठीक से नहीं हो पाती।मुझे अन्य एजेंट्स का नहीं पता पर इस कंपनी का कहना सकता हूं कि पैकेज का पूरी रकम ये वसूल करा देती है अपनी सर्विस से। औरेंज कलर की टी – शर्ट में ये लोग दूर से ही दिखाई दे जाते हैं।
  • यात्रा के लिये अतिरिक्त तैयारी – अंडमान द्वीप समूह पर इंटरनेट काम नहीं करता इसलिये इंटरनेट से संबंधित सभी कार्य कोलकाता या चेन्नई एअरपोर्ट से ही कर लें, जहां से भी फ्लाइट हो।किसी भी तरह का आनलाइन पेमेंट पहले ही कर लें। हर दिन के हिसाब से लगभग 5000 कैश रखें ताकि किसी तरह की दिक्कत का सामना न करना पड़े। पोर्ट ब्लेयर पर आपको एक दो नेट कैफे व एटीएम मिल जायेंगे पर अन्य द्वीपों पर इसकी उम्मीद न करें।वैसे इंटरनेट ना होने का एक बहुत बड़ा फायदा यह होता है कि आप मोबाइल फोन से दूर रहते है, अपनों के साथ ज्यादा समय बिताते हैं और ये लगता है कि समय रुख साफ गया है और आप यहां काफी समय से हैं। साथ में सन ग्लास, छाता, सन्स क्रीम, हैट रखना बहुत जरूरी है।
  • कैसे एन्जॉय करें- अगर कोई पैकेज लिया है तो ज्यादा चिन्ता नहीं करना पड़ेगा, फिर भी अगर नहीं लिया तो लोकल घूमने के लिये एक्टिवा रेंट पर लिया जा सकता है 500-600 में 24 घन्टे तक के लिए रेंट पर मिल जाता है, इसके अलावा फेरी या cruze की बुकिंग भी पहले से करा लें, एक बैकपैक हमेशा तैयार रखें छोटे कपड़ों के साथ, BSNL का सिम है तो बेहतर होगा, और हाँ ज्यादा रात में यहां कुछ नहीं होता है गोवा की तरह।हां सुबह जल्दी उठकर आप कुछ यादगार पल समेट सकते हैं।

धोनी का एक भक्त


मैं भी किसी का भक्त हुँ पक्का वाला पर वो कोई राजनेता नहीं,  मैं भक्त हुँ महेन्द्र सिंह धौनी का। जी हां आप फैन भी कह सकते हैं पर आज के समय के हिसाब से भक्त शब्द परफेक्ट है। मेरे विचार से भक्त शब्द के मतलब उससे है कि जिसकी आप भक्ति करते हैं उसकी आप बुराई या आलोचना सुन न सके। मेरे साथ भी ऐसा ही है पर धोनी की आलोचना करने वालों को मैं ढोंगी और मुर्ख मानता हूँ। 

सचिन अगर भगवान हैं तो धोनी किसी देवदूत से कम नहीं,  अगर टीम इंडिया पांडव की सेना हैं तो धोनी उसके कृष्ण है, अगर टीम इंडिया दूध है तो धोनी मलाई है। अगर कोहली टीम के कप्तान हैं तो वही धोनी मैदान में कीपर,कोच और मेंटर की भूमिका में नजर आते हैं। धोनी की योगदान को आप सिर्फ रन से नहीं माप सकते।

चलिये बात करते हैं कुछ पीछे से,  कुछ क्या इस सदी के शुरुआती वर्षों से। ये वो दौर था जब अगर 4-5 विकेट गिर गये तो लोग समझ जाते थे कि मैच तो गया, उस समय विकेट कीपर मतलब कीपर ही होता था जो 20-25 रन बना दे तो बहुत होता था वैसे राहुल द्रविड़ को जबरदस्ती कीपर बनाया गया था कुछ सालों तक।2000-2004 भारत ने कई विकट कीपर आजमाये पर कोई ठीक से टिक नहीं पाया।  धोनी को जब पहली बांग्लादेश के खिलाफ खेलते देखा तो लगा कि बस यही है जिसकी हमें तलाश है, लम्बे बालों में वह बहुत स्टाइलिस्ट दिखते थे,  मैं पहले मैच से ही यह कामना करता था कि इसके रन बनने चाहिए, शुरूआत की पारियों में तो ये न हो सका लेकिन पाकिस्तान के खिलाफ अपने 5वें वनडे में उन्होंने बताया दिया कि वो क्या हैं। 

जब तक लोग ये जान पाते, समझ पाते कि धोनी कौन है, कहा का है कैसा खेलता है तब तक धोनी टीम इंडिया में अपनी जगह पक्की कर चुके थे,  ऐसे खिलाड़ी अक्सर महानता को प्राप्त करते हैं जो करियर के शुरुआती दौर से ही जगह पक्की कर लेते हैं। धोनी की बैटिंग कलात्मक तो नहीं है लेकिन वह बेहद स्मार्ट बल्लेबाज हैं जो अपना विकेट गवाना नहीं चाहते यही कारण है कि नाबाद रहने का कीर्तिमान भी उनके ही पास है। उनका पहला लक्ष्य होता है कि वो 45 ओवर तक टिके रहे, फिर वो अपना हाथ खोलते हैं। 

धोनी की एक और बात मुझे खास लगती है वो है उनका स्वार्थ से परे होना है,  जब वो कप्तान थे वो चाहते तो तीसरे या चौथे नंबर पर उतरकर बैटिंग कर सकते थे एसा करते तो निश्चित ही उनके आज 12-13 हजार रन पूरे हो चुके होते पर उन्होंने नये खिलाड़ियों में भरोसा दिखाकर उन्हें ऊपर खिलाया, वैसे मै बहुत उत्साहित हूं कि जल्द ही वो 10000 रन वाले क्लब में शामिल हो जायेंगे,  संभवतः वह उस क्लब के एकमात्र सदस्य होंगे जिसने 5-6 नंबर पर बल्लेबाजी  इतने रन बनाए हैं। वैसे अगर धोनी की बैटिंग,  कीपिंग व कप्तानी के आंकड़ों की बात की जायेगी तो कई पेज भर जायेंगे।

आस्टेलिया के खिलाफ पिछले मैच में हमने देखा कि कोहली बाउंड्री के पास फील्डिंग करने रहे हैं,  ऐसा तभी हो सकता है जब आपकी टीम में धोनी जैसा खिलाड़ी हो, दरअसल उस समय आधी कप्तानी धोनी कर रहे थे। पिछले दशकों में टीम में कभी ऐसा नहीं देखा गया कि कप्तान व पूर्व कप्तान इतने कूल तरीके से टीम को सम्भाल रहे हो। दरअसल धोनी का कप्तानी छोड़ना एक मास्टर स्ट्रोक साबित हुआ,  एक तरफ जहां धोनी पर से दबाव है गया वही उनका अनुभव कोहली के काम आ रहा है,  इस तरह टीम के पास दो कप्तान हैं।  फील्ड प्लेसमेंट व गेंदबाजों से बातचीत धोनी ही ज्यादा करते हैं। DRS का तो मतलब ही Dhoni Review System हो गया है। 

मेरी दिली इच्छा है कि धोनी इंग्लैंड में होने वाले 2019 विश्व कप के पहले ये घोषणा कर दे कि विश्व कप का फाइनल मैच  उनके करियर का अंतिम मैच होगा, और फाइनल मैच में जब इंडिया जीते तो मैदान पर धोनी विजयी शाट मारे, छक्कों हो तो सोने पे सुहागा।। जब मैं 60-70 साल का हो जाउँगा तब मेरे व्यक्तित्व जीवन के अलावा धोनी से जुड़ी हुई बातें मैं अपने बच्चों के बच्चों को बताउंगा। 

हिन्दी दिवस पर

आज मैं हिन्दी दिवस पर एक बात सोच रहा कि जब हम छोटे थे तो कभी ये पता न चला कि हिन्दी दिवस कब आयी और चली गयी, कभी हमारे स्कूल में हिन्दी दिवस मनाया नहीं गया न सुना कि किसी और दोस्त के स्कूल में मनाया गया। अब जब कुछ साल से जब से हम बड़े हो गये काम धन्धा करने लगे तब से ही ज्यादा सुनने में आ रहा है।  मैने कभी जानने की कोशिश तो नहीं की पर क्या अभी भी हमारे स्कूलो मे हिन्दी मात्र एक विषय है या उससे कुछ ज्यादा, देखने वाली बात होगी। 

हिन्दी भाषी राज्य होने के कारण मेरी बोलचाल की भाषा तो हिन्दी ही रही पर जब अलग से हिन्दी के बारे में सोचते हैं तो हिन्दी में कम आने वाले नंबर ही याद आते हैं,  पता नहीं क्यूँ मुझे हिन्दी मे अंग्रेजी की तुलना में कम अंक आते थे।  मुझे कवितायें,  दोहे, अलंकार ठीक से आते ही नहीं थे, एक बार हिन्दी के जब मासिक परीक्षा मौखिक हुए तो मेरी नानी याद दिला दी मैडम ने। बहुत बेज्जती हुई भाई 30 में सिर्फ 10 अंक मिले। फिर भी हाई स्कूल व इंटरमीडिएट में 60 से ऊपर ही नंबर आये पर अंग्रेजी से कम।

अब जब बड़े हुए तो समझ में आता है कि हिन्दी सिर्फ एक विषय नहीं है यह इतने बड़े देश को जोड़ने वाला सूत्र है, और सबसे विशेष बात यह कि इस सूत्र में अन्य भाषाओं के रूप में बहुमूल्य मोतियों को पिरोया गया है जो इसे अलग व खूबसूरत बनाता है। हिंदी में भारतीय भाषाओं के मिलान के अतिरिक्त फारसी, अरबी,उर्दू व अंग्रेजी के भी कई शब्दों को अपनाया गया है जिससे इसकी खूबसूरती में चार चांद लग गये हैं। मैने कभी पढ़ा था कि संविधान में राजभाषा के रूप में देवनागरी हिंदी के स्थान पर हिन्दुस्तानी हिन्दी को लेने की चर्चा हुई थी ताकि वह ज्यादा लोकप्रिय हो सके, यानि वो हिन्दी जो मिश्रण है सारी भारतीय भाषाओं का।

बचपन में पापा ने हिन्दी में समाचार सुनने की आदत डलवाया सुबह 7:20 पर गोरखपुर के आकाशवाणी केन्द्र से 10 मिनट का समाचार प्रसारित होता था, समाचार तो सुनते ही थे ये भी पता चल जाता था कि स्कूल के लिये तैयार होने में कितना समय बचा है।  फिर एक बार रेडियो में शॉर्टवेव की जगह मीडियमवेव लगाया तो बीबीसी न्यूज चैनल लग गया फिर उसको भी सुनने लगे गये, उस पर शाम 7:30 वाले शाम में विश्व की कुछ प्रसिद्ध कहानियों का हिन्दी रूपांतरण सुनाते थे, उसका एक अलग ही अनुभव रहा, अब ये सब नहीं हो पाता।  चलो कोशिश करता हूं कि शायद फिर से ये सब शुरू कर पाए।

मुझे हिन्दी के वर्तमान दशा की अपेक्षा  उसके इतिहास में ज्यादा रूचि है। जब कुछ साल पहले मैने पढा कि चीन में मान सरोवर झील से निकलकर चीन, भारत व पाकिस्तान से बहते हुए अरब सागर में मिलने वाली सिन्धु नदी से हिन्दू,  हिन्दू व हिन्दुस्तान का नाम मिला तो सोचकर ही विस्मित होने लगा कि देखिये कि वो नदी तो वैसे ही बह रही है वहां लाखों सालों से और हमने कितनी सरहदें कितनी लडाईया कितने कत्ल कर लिये इन्ही नामो की वजह से।

दरअसल भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे पहले सभ्यता का विकास सिन्धु नदी के किनारे हुआ, अरब से व्यापार होता था इन लोगों का। अरबों ने सिन्धु नदी के आसपास व  उसके पार के इलाके को सिन्धु के नाम से ही संबोधित करने लगे पर वो उच्चारण में स नही बोल पाते हैं तो स के स्थान पर ह बोलने के कारण हिन्दू (hindu)बोलने लगे इसी से यहां बोली जाने वाली भाषा हिंदी कहलाई, जब ग्रीक लोग हमारी सभ्यता के संपर्क में आये तो वो H गायब कर गये व INDI शब्द का उच्चारण करने लगे,  कालांतर में अंग्रेजों ने India नाम का आविष्कार किया।पर गौर करने वाली बात ये कि एक नदी जो हिमालय से अरब सागर तक का सफर करती है उसे ये पता ही नहीं कि उसका क्या योगदान है। हिन्दुस्तान ही नहीं वेस्टइंडीज, इन्डोनेशिया, इंडियन ओसन का भी नामकरण में उसका ही योगदान है।। 

वैसे हिन्दी के प्रचार प्रसार में बालीवुड व टेलीविजन को योगदान अतुलनीय है,  हिन्दी फिल्में व हिन्दी गानें विदेशी लोगों में काफी लोकप्रिय है। जो ठीक से हिंदी जानते भी नहीं है बडे़ मजे से इनका आनंद लेते हैं।  खेल की दुनिया में कमेन्टरी के लिये अब हिन्दी चैनल ही बना दिये गये हैं। 

हिंदी भाषा मीठी, व्यवहारिक व सरल तो है पर जब अंग्रेजी से भिड़ती  है तो कहीं पिछड़ने सी लगती है,  पढाई व नौकरी के मामले में अंग्रेजी बाजी मार ले जाती है,  सिर्फ हिन्दी जानने वाले लोग पिछड़ जाते हैं।  अंग्रेजी में बात करने वालों के सामने लोग सकपका जाते हैं जवाब देते नहीं बनता, मन में ही लोग अनुवाद करने लगते हैं फिर भी जवाब नहीं दे पाते सिर्फ यस राईट करते रहते हैं। इसका कारण हमारे समाज की उस सोच से है जो सीरत के ऊपर सूरत को रखता है,  ग्यान से ऊपर प्रस्तुति को रखता है।  लोग कितनी भी बातें कर ले पक इस सोच को बदले बिना हिन्दी की प्रतिष्ठा का दायरा ऊपर नहीं उठ पायेगा।